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Friday, May 28, 2010

उत्तराखंड में होली की अनूठी परंपरा

‘‘उत्तराखंड के ग्रामीण अंचलों में तबले, मंजीरे और हारमोनियम के सुर में मनाया जाने वाला परंपरागत होलिकोत्सव हर किसी को बरबस अपनी ओर खींच ही लेता है.’’
सांस्कृतिक रूप से समृद्ध एवं सजग माने जाने वाले अल्मोड़ा में तो सांझ ढलते ही होल्यारों की महफिलें सज जाती हैं. इसमें हर उम्र के लोग शामिल होते हैं. युवक, युवतियों और वृद्ध सभी को होली के गूंजते गानों में सराबोर देखा जा सकता है.
लगभग यही दशा कुमाऊं मंडल के अधिकांश क्षेत्रों की होती है. नैनीताल और चंपावत में तबले की थाप, मंजीरे की खनखन और हारमोनियम के मधुर सुरों पर जब 'ऐसे चटक रंग डारो कन्हैया' गाते हैं, तो सभी झूम उठते हैं.
तिहाई पूरा होते ही लगता है कि राग-विहाग की ख़ूबसूरत बंदिश ख़त्म हो गई है. लेकिन तभी होली में भाग लगाने वाले होल्यारों के मुक्त कंठ से भाग लगाते ही तबले पर चांचर का ठेका अभी शुरू नहीं हुआ कि 'होरी' फिर से शबाब पर लौट आती है.पूरी रात इस मस्ती में गुजर जाती है और इस बीच पता नहीं चलता कि भोर कब हुई.

बैठकी होली की उमंग
कुमाऊंनी होली के दो रूप प्रचलित हैं-बैठकी होली और खड़ी होली.
बैठकी होली यहाँ पौष माह से शुरू होकर फाल्गुन तक गाई जाती है. पौष से बसंत पंचमी तक अध्यात्मिक बसंत, पंचमी से शिवरात्रि तक अर्ध श्रृंगारिक और उसके बाद श्रृंगार रस में डूबी होलियाँ गाई जाती हैं. इनमें भक्ति, वैराग्य, विरह, कृष्ण-गोपियों की हंसी-ठिठोली, प्रेमी प्रेमिका की अनबन, देवर-भाभी की छेड़छाड़ सभी रस मिलते हैं.
इस होली में वात्सल्य, श्रृंगार, भक्ति रस एक साथ मौजूद हैं.
संस्कृति प्रेमी एवं युग मंच संस्था चलाने वाले जुहूर आलम कहते हैं कि बैठकी होली जैसे त्योहार को एक गरिमा देती है.
होली मर्मज्ञ एवं संस्कृतिकर्मी रहे गिरीश तिवारी 'गिर्दा' कहते हैं,
‘‘बैठकी होली अपने समृद्ध लोकसंगीत की वजह से यहाँ की संस्कृति में रच बस गई है. यह लोकगीत न्योली जैसे पारंपरिक लोकगीतों से भिन्न है. इसकी भाषा कुमाऊंनी न होकर ब्रज है. सभी बंदिशें राग रागनियों में गाई जाती है. यह खांटी का शास्त्रीय गायन है.’’

एकल और समूह गायन
इस गाने का ढब निराला ही है. इसे समूह में गाया जाता है. लेकिन यह न तो सामूहिक गायन है न ही शास्त्रीय होली की तरह एकल गायन. महफ़िल में मौजूद कोई भी व्यक्ति बंदिश का मुखड़ा गा सकता है जिसे स्थानीय भाषा में भाग लगाना कहते हैं.
गीत एवं नाट्य प्रभाग, के अनुसार,
‘‘यह कदरदान और कलाकार दोनों का मंच है. इस लोक विधा ने हिन्दुस्तानी संगीत को समृद्ध करने के साथ-साथ एक नई समझ भी दी है.’’
खड़ी होली दिन में ढोल-मंजीरों के साथ गोल घेरे में पग संचालन और भाव प्रदर्शन के साथ गाई जाती है. तो रात में यही होली बैठकर गाई जाती है.
शिवरात्रि से होलिकाअष्टमी तक बिना रंग के ही होली गाई जाती है.
होलिका अष्टमी को मंदिरों में आंवला एकादशी को गाँव मोहल्ले के निर्धारित स्थान पर चीर बंधन होता है और रंग डाला जाता है.

होली का उत्साह
बसंत पंचमी होली का नमूना देखें. बसंत पंचमी में "नवल बसंत सखी, ऋतुराज कहायो पुष्पकली सब फूलन लागी फूलहि फूल सुहायो" के साथ शिवरात्रि में "जय जय शिवशंकर योगी, नृत्य करत प्रभु डमरू बजावत बावन धूनी रमायो" गाकर यह होली मनाते हैं.
उत्तराखंड में गंगोलीहाट, लोहाघाट, चंपावत, पिथौरागढ़ एवं नैनीताल बैठकी होली के गढ़ माने जाते हैं. यहां के लोग मैदानी क्षेत्रों में जहाँ-जहाँ गए, इस परंपरा का प्रसार होता गया.
आधुनिक दौर में जब परंपरागत संस्कृति का क्षय हो रहा है तो वहीं कुमाऊं अंचल की होली में मौजूद परंपरा और शास्त्रीय राग-रागनियों में डूबी होली को आमजन की होली बनता देख सुकून दिलाता है.

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अल्मोड़ा, उत्तराखंड देवताओं की धरती ‘देवभूमि’

इतिहास


आज के इतिहासकारों की मान्यता है कि सन् १५६३ ई. में चंदवंश के राजा बालो कल्याणचंद ने आलमनगर के नाम से इस नगर को बसाया था। चंदवंश की पहले राजधानी चम्पावत थी। कल्याणचंद ने इस स्थान के महत्व को भली-भाँति समझा। तभी उन्होंने चम्पावत से बदलकर इस आलमनगर (अल्मोड़ा) को अपनी राजधानी बनाया।

सन् १५६३ से लेकर १७९० ई. तक अल्मोड़ा का धार्मिक भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व कई दिशाओं में अग्रणीय रहा। इसी बीच कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटनाएँ भी घटीं। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से भी अल्मोड़ा सम्स्त कुमाऊँ अंचल का प्रतिनिधित्व करता रहा।

सन् १७९० ई. से गोरखाओं का आक्रमण कुमाऊँ अंचल में होने लगा था। गोरखाओं ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल पर आक्रमण ही नहीं किया बल्कि अपना राज्य भी स्थापित किया। सन् १८१६ ई. में अंग्रेजो की मदद से गोरखा पराजित हुए और इस क्षेत्र में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया।

स्वतंत्रता की लड़ाई में भी अल्मोड़ा के विशेष योगदान रहा है। शिक्षा, कला एवं संस्कृति के उत्थान में अल्मोड़ा का विशेष हाथ रहा है।

कुमाऊँनी संस्कृति की असली छाप अल्मोड़ा में ही मिलती है - अत: कुमाऊँ के सभी नगरों में अल्मोड़ा ही सभी दृष्टियों से बड़ा है।




हमारी संस्कृति

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हर औरत का गहना उसका श्रींगार

नंदा देवी अल्मोड़ा

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बौध मंदिर देहरादून

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राम झुला ऋषिकेश

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सौंदर्य को देखने के लिए संवेदनशीलता चाहिए । प्रकृति में सौंदर्य भरा पड़ा है ।...

चलो अल्मोड़ा चलें ...
प्राकर्तिक सौंदर्य एवं सुन्दरता की एक झलक


मौसम का सुन्दर नजारा


छोलिया नृत्य - इस अंचल का सबसे अधिक चहेता नृत्य 'छौलिया' है


"चितय गोल ज्यू कुमाऊं में न्याय देवता के रूप में पूजे जाते हैं गोल ज्यू"


कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है.


देवभूमि के ऐसे ही रमणीय स्थानों में बाबा नीम करोली महाराज का कैची धाम है.


जागेश्वर उत्तराखंड का मशहूर तीर्थस्थान माना जाता है। यहां पे 8 वीं सदी के बने 124 शिव मंदिरों का समूह है जो अपने शिल्प के लिये खासे मशहूर हैं। इस स्थान में सावन के महीने में शिव की पूजा करना अच्छा माना जाता है। अल्मोड़ा से जागेश्वर की दूरी लगभग 34 किमी. की है।http://images.travelpod.com/users/kailashi/2.1230046200.jageshwar-temple.jpg

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अल्मोड़ा की प्रसिद्ध परंपरागत बाल मिठाई.


यह मशहूर “सिंगोड़ी” (अल्मोड़ा की एक प्रसिद्ध मिठाई)
ये एक तरह का पेडा होता है जिसे मावे से बनाया जाता है। फोटो में आप जो पान जैसी मिठाई देख रहे हैं वही है सिंगोड़ी। दरअसल इस मिठाई की खासियत ये है कि इसे सिंगोड़ी के पत्ते में लपेटकर रखा जाता है।
इस मिठाई को बनाने के लिए पेडे को नौ से दस घंटे तक पत्ते में लपेट कर रखा जाता है।जिसके बाद पत्ते की खुशबु पेडे में आ जाती है। यही खुशबु इस मिठाई की पहचान है।


विश्वविद्यालय से न्यू इन्द्र कालोनी खत्याड़ी अल्मोड़ा का परिद्रिश्य.


"इन्द्रधनुस" सुरूज की किरण जब पानी की बूंद लेकर के गुजरे तब वो किरण अपने सात रंग की छटा ले इन्द्रधनुस के रूप में उभरती है | यह अदभुत नजारा देखें बिना आप नहीं रह सकते |

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