म्योर उत्तराखंड ब्लॉग सेवा ...

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Monday, September 3, 2012

उत्तराखण्ड गाथा . . .

राजभवन उत्तराखण्ड - एक परिचय

उत्तराखण्ड राज्य (प्रारम्भ में उत्तरांचल) 9 नवम्बर 2000 को भारत गणत्रंत के 27 वें राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। उत्तराखण्ड राज्य के गठन के परिणामस्वरूप राजभवन की स्थापना अस्थायी रूप से बीजापुर हाउस, न्यू कैन्ट रोड़ देहरादून में की गयी। तत्पश्चात सर्किट हाउस देहरादून को राजभवन में बदलकर उत्तराखण्ड के प्रथम राज्यपाल श्री सुरजीत सिंह बरनाला 25 दिसम्बर 2000 को इसके प्रथम आवासी बने। सर्किट हाउस जिसे आज राजभवन के नाम से जाना जाता है, का निर्माण सन् 1902 में किया गया था। उस समय इसका नाम ’कोर्ट हाउस’ हुआ करता था, जहां तत्कालीन संयुक्त प्रान्त के ब्रिटिश गवर्नर अपने देहरादून भ्रमण के दौरान प्रायः निवास करते थे। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत के प्रथम प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू जब भी देहरादून आते थे तो यहीं ठहरते थे। समय-समय पर भारत के राष्ट्रपति एवं प्रधानमंत्री इस ऐतिहासिक इमारत में निवास कर इसकी शोभा बढ़ा चुके है। राजभवन देहरादून समुद्र तल से 2305 फीट की ऊंचाई पर स्थित है।
यद्यपि राजभवन को 25 दिसम्बर 2000 को सर्किट हाउस में स्थानान्तरित कर दिया गया था, किन्तु राज्यपाल सचिवालय का संचालन बीजापुर हाउस से ही होता रहा। महामहिम राज्यपाल श्री बी0एल0जोशी (तृतीय राज्यपाल) द्वारा राजभवन परिसर में राज्यपाल सचिवालय तथा प्रेक्षागृह के नवनिर्मित भवनों का उद्धघाटन दिनांक 27 जुलाई 2009 को किया गया। कुछ समय पश्चात् राजभवन परिसर में महामहिम राज्यपाल का पदेन आवास निर्मित किया गया, जिसका उद्धघाटन श्रीमती मार्ग्रेट आल्वा (चतुर्थ राज्यपाल) द्वारा दिनांक 14 अप्रैल 2010 को किया गया है। पुरानी इमारत जो कि महामहिम राज्यपाल का आवास हुआ करता थी, को राजभवन अतिथि गृह के रूप में परिवर्तित किया गया है।
विशाल लान, बोन्जाई गार्डन तथा विभिन्न प्रकार के पुष्प प्रजाति राजभवन की खूबसूरती में चार चांद लगा रहे हैं।
राजभवन प्रेक्षागृह विभिन्न महत्वपूर्ण अवसरों जैसे शपथ-ग्रहण समारोह, सेमीनार, पुस्तक-विमोचन तथा विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि के संचालन का विशेष स्थल है।
उत्तराखण्ड देश के उन चन्द राज्यों में से है जिसके पास दो राजभवन हैं। उत्तराखण्ड का दूसरा राजभवन नैनीताल में स्थित है। नैनीताल स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व तत्कालीन संयुक्त प्रान्त की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी। स्काटिश शैली में निर्मित इस भवन को "गवर्नमेंट हाउस" के नाम से जाना जाता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद "गवर्नमेंट हाउस" का नामान्तरण राजभवन के रूप में कर दिया गया। राजभवन नैनीताल का शिलान्यास 27 अप्रैल 1897 को किया गया और यह दो वर्ष में बन कर तैयार हुआ है। यह इमारत गोथिक भवन निर्माण शिल्प के आधार पर यूरोपीय शैली में निर्मित है।
नैनीताल स्थित राजभवन (तत्कालीन गवर्नमेंट हाउस) के रूपरेखाकार अर्किटेक्ट स्टीवेन्स और अधिशासी अभियन्ता एफ0ओ0डब्लू0 औरेटेल थे। इमारत के निर्माण में विभिन्न प्रजातियों के टीक के साथ ही मुख्यतः बर्मा टीक का प्रयोग किया गया। निर्माण कार्य में स्थानीय पत्थरों का प्रयोग करके इस इमारत को एशलर फिनिंसिंग के साथ परिसज्जित किया गया है। ब्रिटिश काल में कुछ महत्वपूर्ण व्यक्ति, जो सभी संयुक्त प्रान्त के गर्वनर थे, इस इमारत में रह चुके है, उनके नाम हैं- सर एण्टोनी मैक डोनाल्ड, सर जेम्स, सर जान मिस्टन, सर हरबर्ट बटलर इत्यादि। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद उत्तर प्रदेश की प्रथम राज्यपाल श्रीमती सरोजनी नायडू इस ऐतिहासिक इमारत की प्रथम आवासी बनी।
राजभवन परिसर के चारों ओर 160 एकड़ में विस्तृत वनाच्छादित भूमि है जिसमें विभिन्न प्रकार के वनस्पति प्रजाति तथा पशु-पक्षी पाये जाते हैं। राजभवन नैनीताल का 45 एकड़ क्षेत्रफल में फैला अपना एक गोल्फ कोर्स है। गोल्फ कोर्स जो कि 1936 में निर्मित हुआ, भारत के प्राचीनतम गोल्फ कोर्स में शामिल है तथा भारतीय गोल्फ यूनियन (आई0जी0यू0) से सम्बद्ध है। इसमें पर्यटक मामूली शुल्क (ग्रीन फीस) का भुगतान करके गोल्फ खेलने का आनन्द उठा सकते हैं।

20 सितम्बर से नंदादेवी महोत्सव की धूम तैयारियां शुरू . . .

सांस्कृतिक नगरी आगामी 20 सितंबर से नंदादेवी महोत्सव के रंग में रंग जाएगी। छह दिनों तक चलने वाले महोत्वस में सांस्कृतिक कार्यक्रम, प्रदर्शनी समेत तमाम कार्यक्रम आयोजित होंगे। 21 सितंबर को मूर्ति बनाने के लिए कदली के वृक्ष आएंगे और उसी दिन शाम को मेले का उद्घाटन होगा। महोत्सव के दौरान सांस्कृतिक जुलूस भी निकलेगा। प्रशासन, पुलिस महोत्सव के लिए व्यापक तैयारी कर रहा है।
जिलाधिकारी अक्षत गुप्ता ने जिला कार्यालय में इस बाबत अधिकारियों की बैठक में कहा कि सांस्कृतिक कार्यक्रमों के लिए सूचना विभाग, संस्कृति, गीत एवं नाट्य प्रभाग और उत्तर मध्य सांस्कृतिक केंद्र की टीमें आएंगी। उन्होंने बाजार में झूल रहे बिजली, केबल के तारों को ठीक करने को कहा ताकि डोला ले जाने में कोई परेशानी न हो। दिन में सांस्कृतिक कार्यक्रम नंदा देवी परिसर और रात्रि के कार्यक्रम रैमजे इंटर कालेज में होंगे। 24 सितंबर को सांस्कृतिक जुलूस 12 बजे से निकलेगा। मेले के दौरान बाजार में दोपहिया वाहनों का प्रवेश पूरी तरह प्रतिबंधित रहेगा।

Monday, June 25, 2012

ग्वेल देवता, ग्वेल ज्यु, गोलू देवता (न्याय के देवता) की कथा

गोलू देवता जी के बारे मै बहुत ही महत्वपूर्ण एवं रोचक जानकारी . . .


राजा ने भैरव पूजा का आयोजन किया और भगवान भैरव को प्रसन्न करने का प्रयास किया. एक दिन स्वप्न मैं भैरव ने इन्हे दर्शन दिए और कहा - तुम्हारे भाग्य मैं संतान सुख नही है - मैं तुझ पर कृपा कर के स्वयं तेरे घर मैं जन्म लूँगा, परन्तु इसके लिए तुझे आठवीं शादी करनी होगी, क्यौंकी तुम्हारी अन्य रानियाँ मुझे गर्भा मैं धारण करने योग्य नही हैं. राजा यह सुनकर प्रसन्न हुए और उन्होंने भगवान भैरव का आभार मानकर अपनी आठवीं रानी प्राप्त करने का प्रयास किया  


एक दिन राजा झालुराई शिकार करते हुए जंगल मैं बहुत दूर निकल गए. उन्हें बड़े जोरों की प्यास लगी. अपने सैनिकों को पानी लाने का निर्देश देते हुए वो प्यास से बोझिल हो एक वृक्ष की छाँव मैं बैठ गए. बहुत देर तक जब सैनिक पानी ले कर नही आए तो राजा स्वयं उठकर पानी की खोज मैं गए. दूर एक तालाब देखकर राजा उसी और चले. वहाँ पहुंचकर राजा ने अपने सैनिकों को बेहोश पाया. राजा ने ज्योंही पानी को छुआ उन्हें एक नारी स्वर सुनाई दिया - यह तालाब मेरा है - तुम बिना मेरी अनुमति के इसका जल नही पी सकते. तुम्हारे सैनिकों ने यही गलती की थी इसी कारण इनकी यह दशा हुई. तब राजा ने देखा - अत्यन्त सुंदरी एक नारी उनके सामने खड़ी है. राजा कुछ देर उसे एकटक देखते रह गए तब राजा ने उस नारी को अपना परिचय देते हुए कहा - मैं गढी चम्पावत का राजा झालुराई हूँ और यह मेरे सैनिक हैं. प्यास के कारण मैंने ही इन्हे पानी लाने के लिए भेजा था. हे सुंदरी ! मैं आपका परिचय जानना चाहता हूँ, तब उस नारी ने कहा की मैं पंचदेव देवताओं की बाहें कलिंगा हूँ. अगर आप राजा हैं - तो बलशाली भी होंगे - जरा उन दो लड़ते हुए भैंसों को छुडाओ तब मैं मानूंगी की आप गढी चम्पावत के राजा हैं ।

राजा उन दोनों भैसों के युद्ध को देखते हुए समझ नही पाये की इन्हे कैसे छुड़ाया जाय. राजा हार मान गए. तब उस सुंदरी ने उन दोनों भैसों के सींग पकड़कर उन्हें छुडा दिया. राजा आश्चर्यचकित थे उस नारी के इस करतब पर - तभी वहाँ पंचदेव पधारे और राजा ने उनसे कलिंगा का विवाह प्रस्ताव किया. पंच्देवों ने मिलकर कलिंगा का विवाह राजा के साथ कर दिया और राजा को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया ।

रानी कलिंगा अत्यन्त रूपमती एवं धर्मपरायण थी. राजा उसे अपनी राजधानी धूमाकोट मैं रानी बनाकर ले आए. जब सातों रानियों ने देखा की अब तो राजा अपनी आठवीं रानी से ही ज्यादा प्रेम करने लग गए हैं, तो सौतिया डाह एवं ईर्ष्या से जलने लगीं.कुछ समय बाद यह सुअवसर भी आया जब रानी कलिंगा गर्भवती हुई. राजा की खुशी का कोई पारावार न था. वह एक-एक दिन गिनते हुए बालक के जन्म की प्रतीक्षा करने लगे. उत्साह और उमंग की एक लहर सी दौड़ने लगी. परन्तु वे इस बात से अनजान थे, की सातों सौतिया रानियाँ किस षड्यंत्र का ताना बाना बुन रही हैं. सातों सौतनों ने कलिंगा के गर्भ को समाप्त करने की योजना बना ली थी और कलिंगा के साथ झूठी प्रेम भावना प्रदर्शित करने लगीं. कलिंगा के मन मैं उन्होंने गर्भ के विषय मैं तरह - तरह की डरावनी बातें भर दी और यह भी कह दिया की हमने एक बहुत बड़े ज्योतिषी से तुम्हारे गर्भ के बारे मैं पूछा - उसके कथनानुसार रानी को अपने नवजात शिशु को देखना उसके तथा बच्चे के हित मैं नही होगा ।

जब रानी कलिंगा का प्रसव काल आया तो उन सातोम सौतों ने उसकी आंखों में पट्टी बांध दी और बालक को किसी भी तरह मारने का षडयंत्र सोचने लगी। जहां रानी कलिंगा का प्रसव हुआ, उसके नीचे वाले कक्ष में बड़ी-बड़ी गायें रहती थीं। सौतों ने बालक के पैदा होते ही उसे गायों के कक्ष में डाल दिया, ताकि गायों के पैरों के नीचे आकर बालक दब-कुचल्कर मर जाये। परन्तु बालक तो अवतारी था, सौतेली मांओं के इस कृत्य का उस पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा और वह गायों का दूध पीकर प्रसन्न मुद्रा में किलकारियां मारने लगा।

रानी कलिंगा की आंखों की पट्टियां खोली गईं और सौतों ने उनसे कहा कि "प्रसव के रुप में तुमने इस सिलबट्टे को जन्म दिया है", उस सिलबट्टे को सातों सौतों ने रक्त से सानकर पहले से ही तैयार कर रखा था। उसके बाद सातों सौतों ने उस बालक को कंटीले बिच्छू घास में डाल दिया, परन्तु यहां भी बालक को उन्होंने कुछ समय बाद हंसता-मुस्कुराता पाया। तदुपरांत एक और उपाय खोजा गया कि इस बालक को नमक के ढेर में डालकर दबा दिया जाय और यही प्रयत्न किया गया, परन्तु उस असाधारण बालक के लिये वह नमक का ढेर शक्कर में बदल दिया और वह बालक रानियों के इस प्रयास को भी निरर्थक कर गया।

अंत में जब सातों रानियों ने देखा कि बालक हमारे इतने प्रयासों के बावजूद जिंदा है तो उन्होंने एक लोहे का बक्सा मंगाया और उस संदूक में उस अवतारी बालक को लिटाकर, संदूक को बंदकर उसे काली नदी में बहा दिया, ताकि बालक निश्चित रुप से मर जाये। यहां भी उस बालक ने अपने चमत्कार से उस संदूक को डूबने नहीं दिया और सात दिन, सात रात बहते-बहते वह संदूक आठवें दिन गोरीहाट में पहुंचा. गौरीहाट पर उस दिन भाना नाम के मछुवारे के जाल में वह संदूक फंस गया। भाना ने सोचा कि आज बहुत बड़ी मछली जाल में फंस गई है, उसने जोर लगाकर जाल को खींचा तो उसमें एक लोहे के संदूक देखकर वह आश्चर्यचकित हो गया। संदूक को खोलकर जब उसने हाथ-पांव हिलाते बालक को देखा तो उसने अपनी पत्नी को आवाज देकर बुलाया। मछुआरा निःसंतान था, अतएव पुत्र को पाकर वह दम्पत्ति निहाल हो गया और भगवान के चमत्कार और प्रसाद के आगे नतमस्तक हो गया।

निःसंतान मछुवारे को संतान क्या मिली मानि उसकी दुनिया ही बदल गयी। बालक के लालन-पालन में ही उसका दिन बीत जाता। दोनों पति-पत्नी बस उस बालक की मनोहारी बाल लीला में खोये रहते, वह बालक भी अद्भूत मेधावी था। एक दिन उस बालक ने पने असली मां-बाप को सपने में देखा। मां कलिंगा को रोते-बिलखते यह कहते देखा कि- तू ही मेरा बालक है- तू ही मेरा पुत्र है।

धीरे-धीरे उसने सपने में अपने जन्म की एक-एक घटनायें देखीं, वह सोच-विचार में डूब गया कि आखिर मैं किसका पुत्र हूं? उसने सपने की बात की सच्चाई का पता लगाने का निश्चय कर लिया। एक दिन उस बालक ने अपने पालक पिता से कहा कि मुझे एक घोड़ा चाहिये, निर्धन मछुआरा कहां से घोड़ा ला पाता। उसने एक बढ़ई से कहकर अपने पुत्र का मन रखने के लिये काठ का एक घोड़ा बनवा दिया। बालक चमत्कारी तो था ही, उसने उस काठ के घोड़े में प्राण डाल दिये और फिर वह उस घोड़े में बैठ कर दूर-दूर तक घूमने निकल पड़ता। घूमते-घूमते एक दिन वह बालक राजा झालूराई की राजधानी धूमाकोट में पहुंचा और घोड़े को एक नौले (जलाशय) के पास बांधकर सुस्ताने लगा। वह जलाशय रानियों का स्नानागार भी था। सातों रानियां आपस में बात कर रहीं थीं और रानी कलिंगा के साथ किये अपने कुकृत्यों का बखान कर रहीं थी। बालक को मारने में किसने कितना सहयोग दिया और कलिंगा को सिलबट्टा दिखाने तक का पूरा हाल एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर सुनाया। बालक उनकी बात सुनकर सोचने लगा कि वास्तव में उस सपने की एक-एक बात सच है, वह अपने काठ के घोड़े को लेकर नौले तक गया और रानियों से कहने लगा कि पीछे हटिये-पीछे हटिये, मेरे घोड़े को पानी पीना है। सातों रानियां उसकी वेवकूफी भरी बातों पर हसने लगी और बोली- कैसा बुद्धू है रे तू! कहीं काठ का घोड़ा भी पानी पी सकता है? बालक ने तुरन्त जबाव दिया कि क्या कोई स्त्री सिलबट्टे को जन्म दे सकती है? सभी रानियों के मुंह खुले के खुले रह गये, वे अपने बर्तन छोड़कर राजमहल की ओर भागी और राजा से उस बालक की अभ्रदता की झूठी शिकायतें करने लगी।

राजा ने उस बालक को पकड़वा कर उससे पूछा "यह क्या पागलपन है,तुम एक काठ के घोड़े को कैसे पानी पिला सकते हो?" बालक ने कहा "महाराज जिस राजा के राज्य में स्त्री सिलबट्टा पैदा कर सकती है तो यह काठ का घोड़ा भी पानी पी सकता है" तब बालक ने अपने जन्म की घटनाओं का पूरा वर्णन राजा के सामने किया और कहा कि " न केवल मेरी मां कलिंगा के साथ गोर अन्याय हुआ है महाराज! बल्कि आप भी ठगे गये हैं" तब राजा ने सातों रानियों को बंदीगृह में डाल देने की आग्या दी। सातों रानियां रानी कलिंगा से अपने किये के लिये क्षमा मांगने लगी और आत्म्ग्लानि से लज्जित होकर रोने-गिड़गिडा़ने लगी। तब उस बालक ने अपने पिता को समझाकर उन्हें माफ कर देने का अनुरोध किया। राजा ने उन्हें दासियों की भांति जीवन यापन करने के लिये छोड़ दिया। यही बालक बड़ा होकर ग्वेल, गोलू, बाला गोरिया तथा गौर भैरव नाम से प्रसिद्ध हुआ ग्वेल नाम इसलिये पड़ा कि इन्होंने अपने राज्य में जनता की एक रक्षक के रुप में रक्षा की और हर विपत्ति में ये जनता की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रुप से रक्षा करते थे। गौरी हाट में ये मछुवारे को संदूक में मिले थे, इसलिये बाला गोरिया कहलाये। भैरव रुप में इन्हें शक्तियां प्राप्त थीं और इनका रंग अत्यन्त सफेद होने के कारण इन्हें गौर भैरव भी कहा जाता है।

Tuesday, May 29, 2012

उत्तराखंड हाईस्कूल का परिणाम यहाँ देखें . . .
http://results.uttaranchaleducation.net/class-10.htm
उत्तराखंड इंटर का परिणाम यहाँ देखें . . .
http://results.uttaranchaleducation.net/class-12.htm

Friday, March 2, 2012

उत्तराखंड एक परिचय

नये राज्य का उदयः
9 नवंबर सन्‌ 2000 को भारत के सत्ताईसवें राज्‍य के रूप में उत्तरांचल(अब उत्तराखंड) नाम से इस प्रदेश का जन्‍म हुआ , इससे पहले ये उत्तर प्रदेश का ही एक हिस्‍सा था। यह 13 जिलों में विभक्त है, 7 गढ़वाल में - देहरादून , उत्तरकाशी , पौड़ी , टेहरी (अब नई टेहरी) , चमोली , रूद्रप्रयाग और हरिद्वार और 6 कुमाऊँ में अल्‍मोड़ा , रानीखेत , पिथौरागढ़ , चम्‍पावत , बागेश्‍वर और उधम सिंह नगर । यह पूर्व में नेपाल , उत्तर में चीन , पश्‍चिम में हिमाचल प्रदेश और दक्षिण में उत्तर प्रदेश से घिरा हुआ है। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि धरातल पर यदि कहीं समाजवाद दिखाई देता है तो वह इस क्षेत्र में देखने को मिलता है इसलिए यहाँ की संस्कृति संसार की श्रेष्ठ संस्कृतियों में मानी जाती है। इस भूमि की पवित्रता एवं प्राकृतिक विशेषता के कारण यहाँ के निवासीयों में भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है अर्थात् प्रकृति प्रदत शिक्षण द्वारा यहाँ के निवासी ईमानदार, सत्यवादी, शांत स्वभाव, निश्छल, कर्मशील एवं ईश्वर प्रेमी होते हैं।
राजधानी- देहरादून
उत्तराँचल का नया नाम उत्तराखंड पड़ा - १ जनवरी ,२००७
स्थिति - देश के उत्तरी सीमान्त प्रदेश के उत्तर में हिमांचल एवं चीन पूर्व में नेपाल, दक्षिण में उत्तर प्रदेश, पश्चिम में हरियाणा और हिमांचल.
सीमावर्ती राज्य - हिमांचल , हरियाणा, उत्तर प्रदेश
सीमावर्ती देश - नेपाल , तिब्बत(चीन आधिपत्य)
लम्बाई - पूर्व से पश्चिम की ओर ३५८ किलोमीटर
लम्बाई - उत्तर से दक्षिण की ओर ३२० किलोमीटर
क्षेत्रफल - ५३,४८३ वर्ग किलोमीटर (देश के कुल क्षेत्रफल का १.६९ प्रतिशत)
राज्य का आकार - आयताकार
क्षेत्रफल की द्रष्टि से - १८ वाँ(देश भर में)
जनसँख्या की द्रष्टि से देश में उत्तराँचल का स्थान - २० वाँ
जनसँख्या घनत्व की द्रष्टि से देश में उत्तराँचल का स्थान - २५ वाँ
जनसँख्या - ८४, ८९, ३४९
पुरुष - ४३, २५, ९२४
स्त्री - ४१,६३,४२५
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उत्तराखंड (उत्तराँचल) इतिहास
आप यहाँ पर उत्तराखंड के इतिहास के बारें में जान पायेंगे। यह जानकारी अलग अलग ब्लोग्कर्ताओ के ब्लॉग से एवं इन्टरनेट की दुनिया से ली गयी है। आईएं जाने अपने उत्तराखंड (उत्तराँचल) की गाथा।

विभिन्न जानकारों के अनुसार . . .

इतिहास के पन्नों में उत्तराखंड
स्कन्द पुराण में हिमालय को पॉच भौगोलिक क्षेत्रों में बांटा गया है।
"खण्डाः पत्र्च हिमालयस्य कथिताः नैपालकूमाँचंलौ।
केदारोऽथ जालन्धरोऽथ रूचिर काश्मीर संज्ञोऽन्तिमः ।।"
अर्थात हिमालय क्षेत्र में नेपाल, कुर्मांचल, केदारखण्ड़ (गढवाल), जालन्धर ( हिमाचल प्रदेश ) और सुरम्य काश्मीर पॉच खण्ड है।

पौराणिक ग्रन्थों में कुर्मांचल क्षेत्र मानसखण्ड के नाम से प्रसिद्व था। जिनमें उत्तरीय हिमालय को सिद्ध गन्धर्व,
यक्ष, किन्नर जातियों की सृष्टि और इस सृष्टि का राजा कुबेर बताया गया हैं। कुबेर की राजधानी अलकापुरी ( बद्रीनाथ से ऊपर) बताई गयी है। पुराणों के अनुसार राजा कुबेर के राज्य में ऋषि -मुनि तप व साधना किया करते थे।
अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार हुण, सकास, नाग खश आदि जातियां भी हिमालय क्षेत्र में निवास करती थी। किन्तु पौराणिक ग्रन्थों में केदार खण्ड व मानस खण्ड के नाम से इस क्षेत्र का व्यापक उल्लेख है।
इस क्षेत्र को देव-भूमि व तपोभूमि माना गया है। मानस खण्ड का कुर्मांचल व कुमाऊं नाम चन्द राजाओं के शासन काल में प्रचलित हुआ। कुर्मांचल पर चन्द राजाओं का शासन कत्यूरियों के बाद प्रारम्भ होकर सन 1790 तक रहा। सन 1790 में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊं पर आक्रमण कर कुमाऊं राज्य को अपने अधीन कर दिया। गोरखाओं का कुमाऊं पर सन 1790 से 1815 तक शासन रहा। सन 1815 में अंग्रजो से अन्तिम बार
परास्त होने के उपरान्त गोरखा सेना नेपाल वापस चली गई। किन्तु अंग्रजों ने कुमाऊं का शासन चन्द राजाओं को न देकर कुमाऊं को ईस्ट इण्ड़िया कम्पनी के अधीन कर किया। इस प्रकार कुमाऊं पर अंग्रेजो का शासन 1815 से प्रारम्भ हुआ।

ऐतिहासिक विवरणों के अनुसार केदार खण्ड कई गढों( किले ) में विभक्त था। इन गढों के अलग राजा थे और राजाओं का अपने-अपने आधिपत्य वाले क्षेत्र पर साम्राज्य था। इतिहासकारों के अनुसार पंवार वंश के राजा ने इन गढो को अपने अधीनकर एकीकृत गढवाल राज्य की स्थापना की और श्रीनगर को अपनी राजधानी बनाया। केदार खण्ड का गढवाल नाम तभी प्रचलित हुआ।

सन1803 में नेपाल की गोरखा सेना ने गढवाल राज्य पर आक्रमण कर गढवाल राज्य को अपने अधीन कर लिया । महाराजा गढवाल ने नेपाल की गोरखा सेना के अधिपत्य से राज्य को मुक्त कराने के लिए अंग्रजो से सहायता मांगी। अंग्रेज सेना ने नेपाल की गोरखा सेना को देहरादून के समीप सन 1815 में अन्तिम रूप से परास्त कर दिया । किन्तु गढवाल के तत्कालीन महाराजा द्वारा युद्ध व्यय की निर्धारित धनराशि का भुगतान करने में असमर्थता व्यक्त करने के कारण अंग्रजो ने सम्पूर्ण गढवाल राज्य गढवाल को न सौप कर, अलकनन्दा मन्दाकिनी के पूर्व का भाग ईस्ट इण्डिया कम्पनी के शासन में शामिल कर गढवाल के महाराजा को केवल टिहरी जिले ( वर्तमान उत्तरकाशी सहित ) का भू-भाग वापिस किया।

गढवाल के तत्कालीन महाराजा सुदर्शन शाह ने 28 दिसम्बर 1815 को टिहरी नाम के स्थान पर जो भागीरथी और भिलंगना के संगम पर छोटा सा गॉव था, अपनी राजधानी स्थापित की। कुछ वर्षों के उपरान्त उनके उत्तराधिकारी महाराजा नरेन्द्र शाह ने ओड़ाथली नामक स्थान पर नरेन्द्र नगर नाम से दूसरी राजधानी स्थापित की । सन1815 से देहरादून व पौडी गढवाल ( वर्तमान चमोली जिलो व रूद्र प्रयाग जिले की अगस्तमुनि व ऊखीमठ विकास खण्ड सहित) अंग्रेजो के अधीन व टिहरी गढवाल महाराजा टिहरी के अधीन हुआ। भारतीय
गणतंन्त्र में टिहरी राज्य का विलय अगस्त 1949 में हुआ और टिहरी को तत्कालीन संयुक्त प्रांत का एक जिला घोषित किया गया। भारत व चीन युद्व की पृष्ठ भूमि में सीमान्त क्षेत्रों के विकास की दृष्टि से सन 1960 में तीन सीमान्त जिले उत्तरकाशी, चमोली व पिथौरागढ़ का गठन किया गया ।

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भारत का शीर्ष भाग उत्तराखंड के नाम से जाना जाता है। जिसका उल्लेख वेद, पुराणों विशेषकर केदारखण्ड में पाया जाता है। देवताओं की आत्मा हिमालय के मध्य भाग में गढ़वाल अपने ऐतिहासिक एंव सांस्कृतिक महत्व तथा प्राकृतिक सौंदर्य में अद्भुत है। 5845 कि. मी. में फैला उत्तराखंड जहाँ 80 लाख जनसंख्या निवास करती है, उत्तरांचल दो शब्‍दों के मिलाने से मिला है - उत्तर यानि कि नोर्थ और अंचल यानि कि रीजन , भारत के उत्तर की तरफ फैला प्रान्‍त यानि कि उत्तरांचल।
इसी उत्तराखंड में आदिगुरू शंकाराचार्य ने स्वर्गीय आभा वाले बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री चारों धामों की स्थापना करके भारतीय संस्कृति के समन्वय की अद्भुत मिसाल कायम की है। ये चारों धाम की स्थापना करके भारत वासियों के ही नहीं विश्व जनमास के श्रद्धा विश्वास के धर्म स्थल हैं। यहाँ भिन्न- भिन्न जातियों के पशु-पक्षी, छोटी- छोटी नदीयां, पनी के प्राकृतिक झरने, बाँज, बुरॉस, देवदार के हरे पेड़, उँची- उँची चोटीयों पर सिद्धपीठ, प्राकृतिक सुन्दरता से भरपूर शहर, हरिद्वार, ऋषिकेश जौसे धार्मिक नगर, माँ गंगा, यमुना जैसी पवित्र नदियाँ अपनी कल-कल ध्वनी करती हुई युगों से लाखों जीवों की प्राण रक्षा का भार उठाते हुए सम्पूर्ण मलिनताओं को धोते हुए अंतिम गंतव्य तक पंहुचती हैं।
हिमालय पर्वत की बर्फ से अच्छादित चोटियाँ तथा ऋतुओं के परिवर्तन के अद्वितीय सौंदर्य को देखकर मानव, देवता, किन्नर, गंधर्व ही नहीं पशु-पक्षी भी यही अभिलाषा रखते हैं कि वे अपना निवास इसी पवित्र धरती को बनाएं। महान संतों, देवताओं, ऋषियों, मुनियों, योगीयों, तपस्वीयों, ईश्वरीय अवतारों की तपो स्थली होने के कारण यह भूमि देव भूमि के नाम से विख्यात है। इस भूमि की पवित्रता एवं प्राकृतिक विशेषता के कारण यहाँ के निवासीयों में भी इसका प्रभाव परिलक्षित होता है अर्थात् प्रकृति प्रदत शिक्षण द्वारा यहाँ के निवासी ईमानदार, सत्यवादी, शांत स्वभाव, निश्छल, कर्मशील एवं ईश्वर प्रेमी होते हैं। इन गुणों को किसी के द्वारा सिखाने की आवश्यकता नहीं होती है अपितु वे स्वाभाविक रूप से उक्त गुणों के धनी होते हैं।

उत्तराखंड का इतिहास उतना ही पुराना है जितना कि मानव जाती का। यहाँ कई शिलालेख, ताम्रपत्र व प्राचीन अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। जिससे गढ़वाल की प्राचीनता का पता चलता है। गोपेश्नर में शिव-मंदिर में एक शिला पर लिखे गये लेख से ज्ञात होता है कि कई सौ वर्ष से यात्रियों का आवागमन इस क्षेत्र में होता आ रहा है। मार्कण्डेय पुराण, शिव पुराण, मेघदूत व रघुवंश महाकाव्य में यहाँ की सभ्यता व संस्कृति का वर्णन हुआ है। बौधकाल, मौर्यकाल व अशोक के समय के ताम्रपत्र भी यहाँ मिले हैं। इस भूमी का प्राचीन ग्रन्थों में देवभूमि या स्वर्गद्वार के रूप में वर्णन किया गया है। पवित्र गंगा हरिद्वार में मैदान को छूती है। प्राचीन धर्म ग्रन्थों में वर्णित यही मायापुर है। गंगा यहाँ भौतिक जगत में उतरती है। इससे पहले वह सुर-नदी देवभूमि में विचरण करती है। इस भूमी में हर रूप शिव भी वास करते हैं, तो हरि रूप में बद्रीनारायण भी। माँ गंगा का यह उदगम क्षेत्र उस देव संस्कृति का वास्तविक क्रिड़ा क्षेत्र रहा है जो पौराणिक आख्याओं के रूप में आज भी धर्म-परायण जनता के मानस में विश्वास एवं आस्था के रूप में जीवित हैं। उत्तराखंड की प्राचीन जातियों में किरात, यक्ष, गंधर्व, नाग, खस, नाथ आदी जातियों का विशेष उल्लेख मिलता है। आर्यों की एक श्रेणी गढ़वाल में आई थी जो खस (खसिया) कहलाई। यहाँ की कोल भील, जो जातियाँ थी कालांतर में स्वतंत्रता प्राप्ति के बात हरिजन कहलाई। देश के विभिन्न क्षेत्रों से लोग यात्री के रूप में बद्रीनारायण के दर्शन के लिए आये उनमें से कई लोग यहाँ बस गये और उत्तराखंड को अपना स्थायी निवास बना दिया। ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी यहाँ रहने लगे। मुख्य रूप से इस क्षेत्र में ब्राह्मण एवं क्षत्रीय जाति के लोगों का निवास अधिक है। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद हरिद्वार, उधमसिंह नगर एवं कुछ अन्य क्षेत्रों को मिलाने से अन्य जाती के लोगों में अब बढोत्री हो गई है। इस क्षेत्र की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि धरातल पर यदि कहीं समाजवाद दिखाई देता है तो वह इस क्षेत्र में देखने को मिलता है इसलिए यहाँ की संस्कृति संसार की श्रेष्ठ संस्कृतियों में मानी जाती है। सातवीं सदी के गढ़वाल का एतिहासिक विवरण प्राप्त है। 688 ई0 के आसपास चाँदपुर, गढ़ी (वर्तमान चमोली जिले में कर्णप्रयाग से 13 मील पूर्व ) में राजा भानुप्रताप का राज्य था। उसकी दो कन्यायें थी। प्रथम कन्या का विवाह कुमाऊं के राजकुमार राजपाल से हुआ तथा छोटी का विवाह धारा नगरी के राजकुमार कनकपाल से हुआ इसी का वंश आगे बढा।

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महाराजा कनकपाल का समय
कनकपाल ने 756 ई0 तक चाँदपुर गढ़ी में राज किया। कनकपाल की 37 वीं पीढ़ी में महाराजा अजयपाल का जन्म हुआ। इस लम्बे अंतराल में कोई शक्तिशाली राजा नहीं हुआ। गढ़वाल छोटे-छोटे ठाकुरी गढ़ों में बंटा था, जो आपस में लड़ते रहते थे। कुमाऊं के कत्यूरी शासक भी आक्रमण करते रहते थे। कत्यूरियों मे ज्योतिष्पुर (वर्तमान जोशीमठ) तक अधिकार कर लिया था।
महाराजा अजयपाल का समय
राजा कनकपाल की 37 वीं पीढ़ी में 1500 ई0 के महाराजा अजयपाल नाम के प्रतापी राजा हुए। गढ़वाल राज्य की स्थापना का महान श्रेय इन्ही को है। इन्होने 52 छोटे-छोटे ठाकुरी गढ़ों को जीतकर एक शक्तिशाली गढ़वाल का अर्थ है, गढ़­­ = किला, वाल = वाला अर्थात किलों का समुह। कुमाऊं के राजा कीर्तिचन्द व कत्यूरियों के आक्रमण से त्रस्त होकर महाराजा अजयपाल ने 1508 ई0 के आसपास अपनी राजधानी चाँदपुर गढ़ी से देवलगढ़ तथा 1512 ई0 में देवलगढ़ से श्रीनगर में स्थापित की। इनके शासनकाल में गढ़वाल की सामाजिक, राजनैतिक व धार्मिक उन्नति हुई।
शाह की उपाधिः महाराजा अजयपाल की तीसरी पीढ़ी में बलभद्र हुए। ये दिल्ली के शंहशाह अकबर के समकालीन थे, कहते हैं कि एक बार नजीबाबाद के निकट शिकार खेलते समय बलभद्र ने शेर के आक्रमण से दिल्ली के शंहशाह की रक्षा की। इसलिए उन्हे शाह की उपाधि प्राप्त हुई, तबसे 1948 तक गढ़वाल के राजाओं के साथ शाह की उपाधि जुड़ी रही।

गढ़वाल का विभाजन
1803 में महाराजा प्रद्दुम्न शाह संपूर्ण गढ़वाल के अंतिम नरेश थे जिनकी राजधानी श्रीनगर थी। गोरखों के आक्रमण और संधि-प्रस्ताव के आधार पर प्रति वर्ष 25000 /- रूपये कर के रूप में गोरखों को देने के कारण राज्य की आर्थिक स्थिति दयनीय हो गई थी। इसी अवसर का लाभ उठाकर गोरखों ने दूसरी बार गढ़वाल पर आक्रमण किया और पूरे गढ़वाल को तहस-नहस कर डाला। राजा प्रद्दुम्न शाह देहरादून के खुड़ब़ड़ा के युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए और गढ़वाल में गोरखों का शासन हो गया। इसके साथ ही गढ़वाल दो भागों में विभाजित हो गया।
गढ़वाल रियासत (टिहरी गढ़वाल)- महाराजा प्रद्दुम्न शाह की मृत्यू के बाद इनके 20 वर्षिय पुत्र सुदर्शन शाह इनके उत्तराधिकारी बने। सुदर्शन शाह ने बड़े संघर्ष और ब्रिटिश शासन की सहयाता से, जनरल जिलेस्पी और जनरल फ्रेजर के युद्ध संचालन के बल पर गढ़वाल को गोरखों की अधीनता से मुक्त करवाया। इस सहयाता के बदले अंग्रेजों ने अलकनंदा व मंदाकिनी के पूर्व दिशा का सम्पूर्ण भाग ब्रिटिश साम्राज्य में मिला दिया, जिससे यह क्षेत्र ब्रिटिश गढ़वाल कहलाने लगा और पौड़ी इसकी राजधानी बनी।

टिहरी गढ़वाल
 महाराजा सुदर्शन शाह ने भगिरथी और भिलंगना के सगंम पर अपनी राजधानी बसाई, जिसका नाम टिहरी रखा। राजा सुदर्शन शाह के पश्चात क्रमशः भवानी शाह ( 1859-72), प्रताप शाह (1872-87), कीर्ति शाह (1892-1913), नरेन्द्र शाह (1916-46) टिहरी रीयासत की राजगद्दी पर बैठे। महाराजा प्रताप शाह तथा कीर्ति शाह की मृत्यु के समय उत्तराधिकारियों के नबालिग होने के कारण तत्कालीन राजमाताओं ने क्रमशः राजमाता गुलेरिया तथा राजमाता नैपालिया ने अंग्रेज रिजेडेन्टों की देख-रेख में (1887-92) तथा (1913-1916) तक शासन का भार संभाला। रियासत के अंतिम राजा मानवेन्द्र शाह के समय सन् 1949 में रियासत भारतीय गणतंत्र में विलीन हो गई।
उत्तराचंल के जिले
उत्तराचंल को 13 जिलों में विभक्त किया गया है 7 गढ़वाल में - देहरादून , उत्तरकाशी , पौड़ी , टेहरी (अब नई टेहरी) , चमोली , रूद्रप्रयाग और हरिद्वार और 6 कुमाऊँ में अल्‍मोड़ा , रानीखेत , पिथौरागढ़ , चम्‍पावत , बागेश्‍वर और उधम सिंह नगर ।
पौड़ी गढ़वाल
यह कान्डोंलिया पर्वत के उतर तथा समुद्रतल से 5950 फुट की ऊँचाई पर स्थित है। यहां से मुख्य शहर कोटद्वार, पाबौ, पैठाणी, थैलीसैण, घुमाकोट, श्रीनगर, दुगड्डा, सतपुली इत्यादी हैं। ब्रिटीश शासनकाल में यहाँ राज्सव इकट्ठा करने का मुख्य केन्द्र था। यहाँ पं. गोविन्द वल्लभ पंत इंजिनियरिंग कालेज भी है। इतिहासकारों के अनुसार गढ़वाल में कभी 52 गढ़ थे जो गढ़वाल के पंवार पाल और शाह शासकों ने समय समय पर बनाये थे। इनमें से अधिकांश पौड़ी में आते हैं। यहाँ से 2 कि. मी. की दूरी पर स्थित क्युंकलेश्वर महादेव पौड़ी का मुख्य दर्शनीय स्थल है जो कि 8वीं शताब्दी में निर्मित भगवान शिव का मंदिर है। यंहा से श्रीनगर घाटी और हिमालय का मनोरम दृष्य दिखाई देता है। यहाँ पर कण्डोलिया देवता और नाग देवता के मंदिर भी धार्मिक आस्था के प्रतीक हैं। यहाँ से ज्वालपा देवी का मंदिर शहर से 34 कि. मी. दूर है। यहाँ प्रतिवर्ष नवरात्रियों के अवसर पर दूर दूर से श्रद्धालु दर्शन और पूजा के लिए आते हैं। यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन कोटद्वार 100 कि. मी. और ऋषिकेश से 142 कि. मी.की दूरी पर स्थित है।

उत्तराचंल की प्रमख नदियां
गंगा, यमुना, काली, रामगंगा, भागीरथी, अलकनन्दा, कोसी, गोमती, टौंस, मंदाकिनी, धौली गंगा, गौरीगंगा, पिंडर नयार(पू) पिंडर नयार (प) आदी प्रमुख नदीयां हैं।
उत्तराचंल के प्रमुख हिमशिखर
गंगोत्री (6614), दूनगिरि (7066), बंदरपूछ (6315), केदारनाथ (6490), चौखंवा (7138), कामेत (7756), सतोपंथ (7075), नीलकंठ (5696), नंदा देवी (7817), गोरी पर्वत (6250), हाथी पर्वत (6727), नंदा धुंटी (6309), नंदा कोट (6861) देव वन (6853), माना (7273), मृगथनी (6855), पंचाचूली (6905), गुनी (6179), यूंगटागट (6945)।

उत्तराचंल की प्रमुख झीलें (ताल)
गौरीकुण्ड, रूपकुण्ड, नंदीकुण्ड, डूयोढ़ी ताल, जराल ताल, शहस्त्रा ताल, मासर ताल, नैनीताल, भीमताल, सात ताल, नौकुचिया ताल, सूखा ताल, श्यामला ताल, सुरपा ताल, गरूड़ी ताल, हरीश ताल, लोखम ताल, पार्वती ताल, तड़ाग ताल (कुंमाऊँ क्षेत्र) इत्यादि।
उत्तराचंल के प्रमुख दर्रे
बरास- 5365मी.,(उत्तरकाशी), माणा- 6608मी. (चमोली), नोती-5300मी. (चमोली), बोल्छाधुरा-5353मी.,(पिथौरागड़), कुरंगी-वुरंगी-5564 मी.( पिथौरागड़), लोवेपुरा-5564मी. (पिथौरागड़), लमप्याधुरा-5553 मी. (पिथौरागड़), लिपुलेश-5129 मी. (पिथौरागड़), उंटाबुरा, थांगला, ट्रेलपास, मलारीपास, रालमपास, सोग चोग ला पुलिग ला, तुनजुनला, मरहीला, चिरीचुन दर्रा।

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अल्मोड़ा, उत्तराखंड देवताओं की धरती ‘देवभूमि’

इतिहास


आज के इतिहासकारों की मान्यता है कि सन् १५६३ ई. में चंदवंश के राजा बालो कल्याणचंद ने आलमनगर के नाम से इस नगर को बसाया था। चंदवंश की पहले राजधानी चम्पावत थी। कल्याणचंद ने इस स्थान के महत्व को भली-भाँति समझा। तभी उन्होंने चम्पावत से बदलकर इस आलमनगर (अल्मोड़ा) को अपनी राजधानी बनाया।

सन् १५६३ से लेकर १७९० ई. तक अल्मोड़ा का धार्मिक भौगोलिक और ऐतिहासिक महत्व कई दिशाओं में अग्रणीय रहा। इसी बीच कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक एवं राजनैतिक घटनाएँ भी घटीं। साहित्यिक एवं सांस्कृतिक दृष्टियों से भी अल्मोड़ा सम्स्त कुमाऊँ अंचल का प्रतिनिधित्व करता रहा।

सन् १७९० ई. से गोरखाओं का आक्रमण कुमाऊँ अंचल में होने लगा था। गोरखाओं ने कुमाऊँ तथा गढ़वाल पर आक्रमण ही नहीं किया बल्कि अपना राज्य भी स्थापित किया। सन् १८१६ ई. में अंग्रेजो की मदद से गोरखा पराजित हुए और इस क्षेत्र में अंग्रेजों का राज्य स्थापित हो गया।

स्वतंत्रता की लड़ाई में भी अल्मोड़ा के विशेष योगदान रहा है। शिक्षा, कला एवं संस्कृति के उत्थान में अल्मोड़ा का विशेष हाथ रहा है।

कुमाऊँनी संस्कृति की असली छाप अल्मोड़ा में ही मिलती है - अत: कुमाऊँ के सभी नगरों में अल्मोड़ा ही सभी दृष्टियों से बड़ा है।




हमारी संस्कृति

हमारी संस्कृति
हर औरत का गहना उसका श्रींगार

नंदा देवी अल्मोड़ा

नंदा देवी अल्मोड़ा
नंदा देवी अल्मोड़ा

बौध मंदिर देहरादून

बौध मंदिर देहरादून
बौध मंदिर देहरादून

राम झुला ऋषिकेश

राम झुला ऋषिकेश
राम झुला ऋषिकेश

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सौंदर्य को देखने के लिए संवेदनशीलता चाहिए । प्रकृति में सौंदर्य भरा पड़ा है ।...

चलो अल्मोड़ा चलें ...
प्राकर्तिक सौंदर्य एवं सुन्दरता की एक झलक


मौसम का सुन्दर नजारा


छोलिया नृत्य - इस अंचल का सबसे अधिक चहेता नृत्य 'छौलिया' है


"चितय गोल ज्यू कुमाऊं में न्याय देवता के रूप में पूजे जाते हैं गोल ज्यू"


कोणार्क के सूर्य मन्दिर के बाद कटारमल का यह सूर्य मन्दिर दर्शनीय है.


देवभूमि के ऐसे ही रमणीय स्थानों में बाबा नीम करोली महाराज का कैची धाम है.


जागेश्वर उत्तराखंड का मशहूर तीर्थस्थान माना जाता है। यहां पे 8 वीं सदी के बने 124 शिव मंदिरों का समूह है जो अपने शिल्प के लिये खासे मशहूर हैं। इस स्थान में सावन के महीने में शिव की पूजा करना अच्छा माना जाता है। अल्मोड़ा से जागेश्वर की दूरी लगभग 34 किमी. की है।http://images.travelpod.com/users/kailashi/2.1230046200.jageshwar-temple.jpg

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अल्मोड़ा की प्रसिद्ध परंपरागत बाल मिठाई.


यह मशहूर “सिंगोड़ी” (अल्मोड़ा की एक प्रसिद्ध मिठाई)
ये एक तरह का पेडा होता है जिसे मावे से बनाया जाता है। फोटो में आप जो पान जैसी मिठाई देख रहे हैं वही है सिंगोड़ी। दरअसल इस मिठाई की खासियत ये है कि इसे सिंगोड़ी के पत्ते में लपेटकर रखा जाता है।
इस मिठाई को बनाने के लिए पेडे को नौ से दस घंटे तक पत्ते में लपेट कर रखा जाता है।जिसके बाद पत्ते की खुशबु पेडे में आ जाती है। यही खुशबु इस मिठाई की पहचान है।


विश्वविद्यालय से न्यू इन्द्र कालोनी खत्याड़ी अल्मोड़ा का परिद्रिश्य.


"इन्द्रधनुस" सुरूज की किरण जब पानी की बूंद लेकर के गुजरे तब वो किरण अपने सात रंग की छटा ले इन्द्रधनुस के रूप में उभरती है | यह अदभुत नजारा देखें बिना आप नहीं रह सकते |

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